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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 38 


चंपा ने जैसे जैसे ययाति के बारे में बताया वैसे वैसे ही शर्मिष्ठा ययाति का चित्र बनाती चली गई । कितना आकर्षक चित्र बना था उसने ययाति का ?  चित्र बनने के बाद चंपा ने कहा "बिल्कुल ऐसे ही दिखते हैं सम्राट । राजकुमारी जी, आपने अनुमान के आधार पर वास्तविक और अनुपम चित्र बनाया है सम्राट का । आप तो एक सिद्ध हस्त चित्रकार हैं । पर एक बात बताइए, सम्राट का चित्र बनवाने में सहयोग करने के लिए क्या मुझे कोई पुरुस्कार नहीं मिलेगा" ? चंपा दासी ने आशा भरी नजरों से शर्मिष्ठा को देखकर कहा । 

इससे पहले कि शर्मिष्ठा कुछ कहती , प्रेमा बोल पड़ी "अरी, तूने तो सम्राट का वर्णन करके राजकुमारी जी की आंखों की नींद और मन का चैन सब कुछ छीन लिया है । इस चित्र को देखकर उन्हें न नींद आयेगी और न ही चैन । इसके पश्चात भी तू उनसे ईनाम की आस लगाये बैठी है ? पगली कहीं की । ले, ये स्वर्ण जटित हार ले ले । राजकुमारी जी तो क्या देंगी , मैं ही दे देती हूं तेरा ईनाम । आखिर हमको तूने राजकुमारी जी को छेड़ने का एक अस्त्र प्रदान कर दिया है ना" । प्रेमा ने अपने गले से हार उतारकर चंपा को देते हुए मुस्कुरा कर कहा । चंपा को तो हार से मतलब था , चाहे कोई भी दे ? उसने वह हार ले लिया ।  राजकुमारी शर्मिष्ठा उस चित्र को लेकर अपने कक्ष में भागकर आ गई । 

अपने कक्ष में आकर शर्मिष्ठा ने दोनों हाथों से ययाति का चित्र पकड़ा और उसे तन्मयता के साथ देखने लगी । उपवन में तो सभी सहेलियां और दासियां थीं , उनके सम्मुख देखने में उसे लज्जा की अनुभूति हो रही थी । अब यहां एकान्त में न लाज और न शर्म । जी भरकर देख सकती है वह अपने 'प्रियतम' को । वह ययाति के चित्र पर हलके हलके से हाथ फिराने लगी जैसे कि ययाति उसके सम्मुख बैठे हों । जैसे जैसे वह ययाति के चित्र पर हाथ फिराती जाती उसके नेत्रों से प्रेम वर्षा और भी तीव्र होती जाती । कितनी सुन्दर आंखें थीं ययाति की । कितनी गहराई थी उनमें । सातों महासागरों का जल भी यदि उनमें समा जाये , फिर भी उनकी गहराई कम नहीं होगी । चुंबकीय आकर्षण सा था उन आंखों में । हर किसी को अपनी ओर खींचने की अद्भुत शक्ति थी उनमें । लगता है जैसे कोई सम्मोहिनी शक्ति भरी हुई है उन आंखों में । शर्मिष्ठा अपलक रूप से उन आंखों को देखती रही और उनमें डूब गई । 

वह न जाने कब तक उन गहरी आंखों में डूबी रहती , किन्तु  ययाति के अधरोष्ठों ने उसे बचा लिया । ऐसा लग रहा था कि ययाति के रदुपट कुछ कहने के लिए थिरक रहे हैं । शर्मिष्ठा एकटक उन्हें ही देखती रही जैसे उसे सुनाई पड़ रहा हो "शर्मि, कहां हो तुम ? मैं तुम्हारा कब से इंतजार कर रहा हूं ? मेरे हृदय में तुम्हारे प्रेम की ज्योति जल रही है शर्मि, क्या तुम्हें दिखाई नहीं देती है वह ? मेरी बांहें तुम्हें कसने को कब से तरस रही हैं , क्या तुम्हें इसका किंचित मात्र भी अहसास है" ? 

ययाति की बातें कल्पनाओं में ही सोच सोचकर शर्मिष्ठा के हृदय में प्रेम का समंदर उमड़ने लगा । उसने ययाति का चित्र अपने हृदय से लगा लिया जैसे वह चित्र नहीं होकर स्वयं ययाति ही हो । उस चित्र को हृदय से लगाये हुए शर्मिष्ठा प्रेम के सागर में गोते लगाने लगी । अचानक उसके कानों में आवाज सुनाई दी

"शर्मि, शर्मि । कहां हो तुम" ? मां संभवत: उसे ढूंढती हुई इधर ही आ रही थी । शर्मष्ठा बड़ी उलझन में पड़ गई । यदि मां ने ययाति का चित्र देख लिया तो ? यह सोचकर ही उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई थी । उसने झटपट उस चित्र को अपनी आलमारी में छुपा दिया और अपने पलंग पर आकर चुपचाप बैठ गई । 
"तुम यहां बैठी हो और मैंने तुम्हें ढूंढ ढूंढकर सारा महल छान मारा । क्या कर रही हो तुम यहां पर" ? प्रियंवदा उसके चेहरे की ओर देखकर उसे पढ़ने का प्रयास करने लगी । 
"कुछ भी तो नहीं" । अपने मन के भावों को छुपाते हुए शर्मिष्ठा ने कहा । 
"यदि कुछ नहीं कर रही हो तो चलो मेरे साथ रसोई में । मेरी कुछ सहायता करो" । 

प्रियंवदा ने उसके हृदय की थाह लेने के लिए उसकी ओर पासा फेंका । उस पासे में शर्मिष्ठा फंस गई । उससे न हां करते बन रहा था और न ना करते । यदि वह हां करती है तो उसे ययाति के ध्यान से विलग होना पड़ेगा और अभी वह उसी ध्यान में निमग्न रहना चाह रही थी । यदि वह ना करती है तो मां कहेगी कि जब यहां कुछ कर ही नहीं रही हो तो मेरे साथ रसोई में क्यों नहीं चलना चाहती हो ? इधर गिरे तो कुंआ और उधर गिरे तो खाई । हे भगवान, ये कैसी कठिन परिस्थिति आई ? 

शर्मिष्ठा इस बारे में सोच ही रही थी कि इस विकट घड़ी से कैसे पार पाया जाए कि इतने में प्रेमा आ गई और कहने लगी 
"अरे, तुम यहां बैठी हो और हम सब सखियां तुम्हें ढूंढ ढूंढकर थक गई हैं । चलो, रम्भा वाटिका में सब सखियां तुम्हारा इंतजार कर रही हैं" । प्रेमा की आवाज सुनकर शर्मिष्ठा ने चैन की सांस ली और भगवान का लाख लाख आभार जताया जो उन्होंने उसे बचाने के लिए प्रेमा को भेज दिया था । 
"चलो, चलते हैं" । शर्मिष्ठा ने प्रेमा से कहा और मां से जाने की अनुमति मांगते हुए कहा "माते, यदि आपकी अनुमति हो तो मैं सखियों के साथ 'रम्भा वाटिका' में क्रीड़ा का आनंद ले आऊं" ? उसकी आंखों में याचना थी । 
"इतनी बड़ी हो गई हो किन्तु बच्चों की तरह अभी भी क्रीड़ा में ही ध्यान लगा रहता है । ठीक है, जाओ" । प्रियंवदा के पास और कोई विकल्प था भी नहीं । 

माता की अनुमति मिलने पर शर्मिष्ठा बहुत प्रसन्न हुई । वह दौड़कर रम्भा वाटिका में आ गई । उसे यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि वहां पर एक भी सहेली उपस्थित नहीं थी । उसने प्रेमा से विस्मयपूर्वक पूछा "सब सखियां कहां चली गईं" ? 

उसकी बात पर प्रेमा खिलखिलाकर हंस पड़ी । कहने लगी "यहां तो कोई सखी थी ही नहीं" । उसकी हंसी लगातार बढती जा रही थी । 
"पर तू तो कह रही थी कि यहां सब सखियां इंतजार कर रही हैं" । आश्चर्य से शर्मिष्ठा की आंखें फैलती जा रही थी । 
"वो तो तुम्हें महारानी जी के चंगुल से निकालने के लिए झूठ बोला था । मैंने तुम्हें सम्राट के चित्र को अपलक निहारते हुए देख लिया था । फिर महारानी जी को तुम्हारे कक्ष में प्रवेश करते हुए भी देख लिया था । मैंने ये भी देख लिया था कि तुम महारानी जी के जाल में फंस गई हो । अब ऐसे में यदि एक सहेली अपनी सहेली को नहीं बचाये तो फिर वह कैसी सहेली होगी ? इसलिए झूठ बोलकर तुम्हें वहां से निकाल लाई" । प्रेमा ने दांयी आंख मारते हुए कहा । 

शर्मिष्ठा ने प्रेमा को हर्षातिरेक में बाहों में भर लिया और उसके मुंह पर,चुंबनों की झड़ी लगा दी । प्रेमा उससे अलग होते हुए बोली 
"अरे, ये क्या कर रही हो ? मैं कोई सम्राट थोड़े ही हूं जो इस तरह प्रेम रूपी बरसात की झड़ी लगा रही हो" । 
उसके अंग अंग से शरारत झलक रही थी । शर्मिष्ठा ने जब ये शब्द सुने तो वह उसे मारने को दौड़ी लेकिन प्रेमा चौकन्नी थी वह भाग खड़ी हुई । शर्मिष्ठा कहां मानने वाली थी , वह उसके पीछे दौड़ती रही और उसने उसे पकड़ कर ही दम लिया । उसने प्रेमा के बालों को पकड़ लिया और वहीं बैठ गई । 

"छोड़ दो राजकुमारी जी । अब आगे से सम्राट का नाम नहीं लूंगी कभी , बस" ? 
प्रेमा अपने बाल छुड़ाते हुए बोली । उसके बाल बिखर गए थे । वह रुआंसी होकर बोली 
"आजकल तो भलाई का जमाना ही नहीं रहा है । एक तो किसी चुहिया को शेरनी के चंगुल से बचाओ और वही चुहिया उस बचाने वाले को मारने दौड़े ? सच में , दुनिया बहुत स्वार्थी है । मेरे तुड़े मुड़े बाल देखकर मेरा प्रेमी क्या सोचेगा इसका अंदाजा भी है आपको" ? प्रेमा तनिक कृत्रिम रोषपूर्वक बोली । 

अब शर्मिष्ठा को याद आया कि प्रेमा तो पहले से ही अमात्य पुत्र के साथ प्रेम के बंधन में बंधी हुई है । तब उसे ध्यान आया कि "जब ये दोनों साथ होते होंगे तब क्या क्या बातें करते होंगे ? क्यों न ये प्रेमा से ही जानें" ? तब उसने प्रेमा पर प्रेम की अटूट वर्षा करते हुए कहा "एक बात बता प्रेमा , जब तुम और अमात्य सुत साथ होते हों तब क्या क्या बातें करते हो" ? उत्सुकता से शर्मिष्ठा ने पूछा । 

शर्मिष्ठा की बात सुनकर प्रेमा जोर से हंस पड़ी । उसे हंसते देखकर शर्मिष्ठा अप्रसन्न हो गई "मैंने ऐसा क्या पूछ लिया जो तुम इतनी जोर से हंस रही हो" ? शर्मिष्ठा ने अमर्ष में भरकर प्रेमा की ओर से मुंह मोड़ लिया । 
"अरे, तुम तो आक्रोशित हो गई, सखि । मुझे हंसी आपकी बात पर नहीं आई थी , बल्कि उस पागल प्रेमी की चेष्टाओं पर आई थी । वे जब मिलते हैं तो बातें नहीं करते हैं" । इतना कहकर प्रेमा चुप हो गई । 
"तो क्या करते हैं" ? शर्मिष्ठा ने अधीरता से पूछा । 
"वे जब भी मिलते हैं तो मुझ पर अधीरता से टूट पड़ते हैं । ऐसा लगता है कि जैसे वे जैसे क्षुधा से बुरी तरह से पीड़ित हों । चुंबनों की बौछार कर देते हैं" । प्रेमा लजाते हुए बोली । 
शर्मिष्ठा के चेहरे पर कुछ और जानने की जिज्ञासा थी पर संभवत: उसकी लज्जा उसे रोक रही थी । जिज्ञासा और लज्जा में बड़ा भारी द्वंद्व हो रहा था अंदर ही अंदर । आखिर जिज्ञासा लज्जा को परास्त करके पूछने लगी "क्या वे चुंबन ललाट पर करते हैं" ? 

इस मासूम से प्रश्न पर प्रेमा फिर से हंस पड़ी । "मैंने कुछ त्रुटिपूर्ण प्रश्न पूछ लिया है क्या" ? शर्मिष्ठा फिर से अन्यमनस्क हो गई । 
"नहीं सखि, तुमने पूछने में कुछ भूल नहीं की है । मुझे तो तुम्हारी मासूमियत पर हंसी आ रही है । मेरी भोली सखि , ललाट पर चुंबन तो माता पिता करते हैं , प्रेमी लोग तो अधरों पर करते हैं चुंबन । कभी कभी तो इतना लंबा चुंबन करते हैं वे कि प्राण कंठ में आ जाते हैं" । प्रेमा बताते बताते उत्तेजित हो गई । 
"चुंबन से यदि प्राण संकट में आ जाते हैं तो फिर क्यों करते हैं चुंबन" ? शर्मिष्ठा ने फिर से भोलेपन से पूछा । 
"क्या बताऊं सखि कि उनके चुंबन में कितना आनंद आता है ? कभी कभी तो मेरा मन करता है कि जब वे चुंबन कर रहे हों तो उसके आनंद में ही मेरी मृत्यु हो जाए । उस मृत्यु से श्रेष्ठ और कोई मृत्यु नहीं है सखि" । कहते कहते प्रेमा की आंखें बंद हो गईं । प्रेमा का आनंद में डूबा चेहरा देखकर शर्मिष्ठा भी ययाति को ध्यान में रखकर उसके काल्पनिक चुंबन का आनंद लेने लगी । 

श्री हरि 
10.7.2023 

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8 Comments

Gunjan Kamal

14-Jul-2023 12:25 AM

👏👌

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Hari Shanker Goyal "Hari"

14-Jul-2023 10:35 AM

🙏🙏🙏

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Sushi saxena

12-Jul-2023 11:06 PM

Nice 👍🏼

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Hari Shanker Goyal "Hari"

14-Jul-2023 10:35 AM

🙏🙏🙏

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Varsha_Upadhyay

12-Jul-2023 08:51 PM

शानदार

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Hari Shanker Goyal "Hari"

14-Jul-2023 10:35 AM

🙏🙏🙏

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